काले धुएँ ने पिघलाई हिमालय की बर्फ़: दो दशक में बढ़ा 4°C तापमान

Gaon Connection | May 31, 2025, 12:02 IST

हिमालय की बर्फ़ अब पहले जैसी नहीं रही—गाँवों में जल संकट की आहट सुनाई देने लगी है। चूल्हों का धुआँ, पराली की आग और ट्रैक्टरों से उठता काला धुआँ सिर्फ़ आसमान ही नहीं, हिमालय की बर्फ़ को भी काला कर रहा है। दो दशकों में बर्फ़ की सतह का तापमान 4°C तक बढ़ चुका है। इससे नदियाँ सूखने लगी हैं और गाँवों की जीवनरेखा—जल स्रोत—खतरे में हैं। अगर ब्लैक कार्बन पर अब भी लगाम नहीं लगी, तो पहाड़ों से लेकर मैदान तक, करोड़ों ग्रामीण परिवार पानी की भारी कमी से जूझ सकते हैं।

शहरों की फैक्ट्रियों, गाड़ियों और चूल्हों से उठता धुआं अब सिर्फ़ महानगरों की हवा नहीं बिगाड़ रहा, बल्कि इसकी मार सैकड़ों किलोमीटर दूर हिमालय की बर्फ़ तक पहुँच रही है। गाँवों में पराली जलाने और लकड़ी-गोबर के चूल्हों से उठने वाला ब्लैक कार्बन भी इसी ज़हरीले जाल का हिस्सा बन चुका है। बीते दो दशकों में इस ‘काले धुएं’ ने हिमालय की बर्फ़ की सतह का तापमान औसतन 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा दिया है। इसका असर सीधे-सीधे गाँवों और शहरों—दोनों पर पड़ेगा, क्योंकि हिमालय की पिघलती बर्फ़ से निकलने वाली नदियाँ ही करोड़ों लोगों की जल जीवन रेखा हैं। अगर ये हालात नहीं बदले, तो आने वाले वर्षों में भारत, नेपाल और बांग्लादेश के गाँवों से लेकर शहरों तक, पानी का बड़ा संकट गहराने वाला है।
'क्लाइमेट ट्रेंड्स' की इस रिपोर्ट में NASA के 23 साल (2000–2023) के सैटेलाइट डेटा का विश्लेषण किया गया है। इसमें पाया गया कि 2000 से 2019 के बीच ब्लैक कार्बन की मात्रा में तेज़ बढ़ोतरी हुई है। 2020 से 2023 के बीच भले ही इसकी गति थोड़ी थमी हो, लेकिन तब तक नुकसान हो चुका है। जहां यह कण ज़्यादा जमते हैं, वहाँ बर्फ़ की मोटाई सबसे तेज़ी से घट रही है।
ब्लैक कार्बन दिखने में तो धुएं जैसा लगता है, लेकिन यह बर्फ़ पर जमकर उसकी चमक यानी रिफ्लेक्टिव पावर को कम कर देता है। इससे बर्फ़ सूरज की गर्मी को ज्यादा सोखती है और तेजी से पिघलती है। वैज्ञानिक इसे एक “हीट लैम्प इफेक्ट” कहते हैं, क्योंकि यह सतह को गर्म करके एक खतरनाक चक्र शुरू कर देता है, जिससे ग्लेशियर और तेज़ी से खत्म होने लगते हैं।
रिपोर्ट में बताया गया कि वर्ष 2000–2009 के दौरान हिमालय की बर्फ़ की औसत सतह का तापमान -11.27°C था, जो 2020–2023 के दौरान -7.13°C तक पहुँच गया। यानी औसतन 4 डिग्री की बढ़ोतरी हुई है। अध्ययन यह भी दर्शाता है कि जहां ब्लैक कार्बन ज़्यादा है, वहां बर्फ़ की मोटाई और अल्बीडो — यानी बर्फ़ की सूरज की रोशनी लौटाने की क्षमता — सबसे ज़्यादा घटी है।
ICIMOD के वरिष्ठ क्रायोस्फीयर विशेषज्ञ डॉ. फारूक आज़म ने इंडिया हीट समिट 2025 में कहा कि 2022 ग्लेशियरों के लिए अब तक का सबसे बुरा साल रहा। हिमाचल प्रदेश का छोटा शिगरी ग्लेशियर दो मीटर तक बर्फ़ खो चुका है। उन्होंने चेताया कि 2024 में दुनिया 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि की सीमा पार कर सकती है, और इसका सबसे बुरा असर हिमालय जैसे क्षेत्रों पर पड़ेगा।
उनका कहना है कि ग्लेशियरों के तेज़ पिघलाव से नदियों के पानी में भारी धातुएं भी घुल रही हैं और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों का जलस्तर रिकॉर्ड तोड़ रहा है। यह बदलाव भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे देशों में दो अरब से अधिक लोगों की जल सुरक्षा को सीधे प्रभावित कर सकता है।
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला कहती हैं, "ब्लैक कार्बन का जीवनकाल वातावरण में बहुत कम होता है — कुछ दिन या हफ्ते। यानी अगर हमने अभी कदम उठाए, तो हम दशकों नहीं बल्कि कुछ वर्षों में ही राहत पा सकते हैं।" उनका मानना है कि कुकस्टोव, फसल जलाने और वाहनों से निकलने वाले ब्लैक कार्बन को कम करने के लिए नीतिगत फैसलों की ज़रूरत है, खासकर इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र में।
रिपोर्ट की मुख्य लेखिका डॉ. पलक बलियान बताती हैं, "पूर्वी हिमालय सबसे ज़्यादा प्रभावित है, क्योंकि वहां की जनसंख्या अधिक है और बायोमास जलाने की घटनाएं ज़्यादा होती हैं।"
अध्ययन यह भी साबित करता है कि ब्लैक कार्बन और बर्फ़ की सतह के तापमान के बीच एक सीधा और मजबूत संबंध है — जितना ज़्यादा ब्लैक कार्बन, उतनी तेज़ पिघलन। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इस पर तुरंत कार्रवाई नहीं की गई, तो हिमालय से निकलने वाली नदियों और उनसे जुड़ी पूरी जीवन प्रणाली संकट में पड़ सकती है।